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23 दिस॰ 2009

स्वतंत्र हैं हम?

मैंने यह कविता १९९२ में लिखी थी...इसे मैं अपनी पहली कविता कह सकता हूँ ... यह हिंदी-युग्म के काव्य-पल्लवन पे भी छाप चूका है...एक बार इस ब्लॉग पर भी लिखा था परन्तु आप लोगों की नज़र में नहीं आ पाई...पुन: आपकी आलोचना-प्रसंशा हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ....आशा है आपकी टिप्पणिया अवश्य मिलेंगी...
स्वतंत्र हम-
भारत के जन-गण

समाजवादी- समाजसेवी
जग-जाहिर रंगे सियार है।
राजनेता धर्मवक्ता
रामराज्य के प्रवक्ता हैं
पर राम राज्य का साधन है।
कौन जनता का दुःख हरता है?
इन झंझटों में कौन फंसता है।
राजनीति और धर्म-
इन दो पाटों के बीच
केवल घुन ही पिसता है।


बापू नेहरू के
भारत में जीते हैं क्या?

सत्य-अहिंसा- पंचशील
पुस्तकेषु सिद्धांत हैं।
पदवी-पैरवी में है रेस
लाठी वाले की है भैंस।
मूल्यों का कोई मूल्य नहीं
कुर्सी के सब ग्राहक हैं।

7 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

चिंता जायज है ,बहुत पतन हो चुका है

संगीता पुरी ने कहा…

बिल्‍कुल सही !!

Mithilesh dubey ने कहा…

उम्दा व लाजवाब रचना , बधाई ।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बिल्कुल सही लिखा है।बढ़िया रचना।बधाई\

निर्झर'नीर ने कहा…

exceelent

मनोज कुमार ने कहा…

निर्भीक और सत्य बचन ! आपकी लेखनी बहुत ही उर्बर जान पड़ती है !!

M VERMA ने कहा…

मूल्यो का कोई मूल्य नही
वाकई सब कुछ मूल्यहीन होता जा रहा है.
बेहतरीन रचना

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एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...