मैंने यह कविता १९९२ में लिखी थी...इसे मैं अपनी पहली कविता कह सकता हूँ ... यह हिंदी-युग्म के काव्य-पल्लवन पे भी छाप चूका है...एक बार इस ब्लॉग पर भी लिखा था परन्तु आप लोगों की नज़र में नहीं आ पाई...पुन: आपकी आलोचना-प्रसंशा हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ....आशा है आपकी टिप्पणिया अवश्य मिलेंगी...
सत्य-अहिंसा- पंचशील
पुस्तकेषु सिद्धांत हैं।
पदवी-पैरवी में है रेस
लाठी वाले की है भैंस।
मूल्यों का कोई मूल्य नहीं
कुर्सी के सब ग्राहक हैं।
स्वतंत्र हम-
भारत के जन-गण
समाजवादी- समाजसेवी
जग-जाहिर रंगे सियार है।
राजनेता धर्मवक्ता
रामराज्य के प्रवक्ता हैं
पर राम राज्य का साधन है।
कौन जनता का दुःख हरता है?
इन झंझटों में कौन फंसता है।
राजनीति और धर्म-
इन दो पाटों के बीच
केवल घुन ही पिसता है।
बापू नेहरू के
भारत में जीते हैं क्या?
भारत के जन-गण
समाजवादी- समाजसेवी
जग-जाहिर रंगे सियार है।
राजनेता धर्मवक्ता
रामराज्य के प्रवक्ता हैं
पर राम राज्य का साधन है।
कौन जनता का दुःख हरता है?
इन झंझटों में कौन फंसता है।
राजनीति और धर्म-
इन दो पाटों के बीच
केवल घुन ही पिसता है।
बापू नेहरू के
भारत में जीते हैं क्या?
सत्य-अहिंसा- पंचशील
पुस्तकेषु सिद्धांत हैं।
पदवी-पैरवी में है रेस
लाठी वाले की है भैंस।
मूल्यों का कोई मूल्य नहीं
कुर्सी के सब ग्राहक हैं।
7 टिप्पणियां:
चिंता जायज है ,बहुत पतन हो चुका है
बिल्कुल सही !!
उम्दा व लाजवाब रचना , बधाई ।
बिल्कुल सही लिखा है।बढ़िया रचना।बधाई\
exceelent
निर्भीक और सत्य बचन ! आपकी लेखनी बहुत ही उर्बर जान पड़ती है !!
मूल्यो का कोई मूल्य नही
वाकई सब कुछ मूल्यहीन होता जा रहा है.
बेहतरीन रचना
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एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...