फ़ॉलोअर

6 अक्तू॰ 2009

छोटी-सी एक ग़ज़ल

घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की जगह रखना!

जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाईयाँ बचा रखना!

मस्जिदें हैं नमाजियों के लिए
अपने दिल में कहीं खुदा रखना!

मिलना-जुलना जहाँ जरुरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना!

उम्र करने को है पचास को पार
कौन है किस जगह पता रखना!

12 टिप्‍पणियां:

समय चक्र ने कहा…

कम शब्दों में बेहतरीन गजल . आभार

M VERMA ने कहा…

जिस्म मे फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाईयाँ बचा रखना
अत्यंत खूबसूरत बिम्ब दिया है आपने.

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

बेहद संवेदन शील रचना...

मनोज कुमार ने कहा…

आप की इस ग़ज़ल में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।

shama ने कहा…

apne dilme khuda na ho to kaheeen nahee ho sakta...behtaareen abhwyakti jise baar,baar padhneka man karta hai.....Nanoj ji ne jaise mere moohse alfaaz chhen liye ho!

http://shamasansmaran.blogsot.com

http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com

http://kavitasbyshama.blogspot.com

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बेहतरीन!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर गज़ल प्रस्तुत की है, आपने।
बधाई!

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना ।

vandana gupta ने कहा…

bahut hi behtreen jagrit karti gazal......badhayi

रश्मि प्रभा... ने कहा…

waah, ghar ki tameer chahe jaisi ho ismein rone ki jagah rakhna......bahut badhiyaa

Rajeysha ने कहा…

उम्र करने को है पचास को पार
कौन है किस जगह पता रखना!

यथार्थबोध कराती पंक्‍ि‍तयां
http://rajey.blogspot.com/

बेनामी ने कहा…

This ghazal is sung by Jagjit Singh in his album "In search" and is written by Nida Fazli, hope everybody knows here. nyhow wonderful gazal

एक टिप्पणी भेजें

एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...