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4 अप्रैल 2014

परछाइयां...

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रात काली ख्वाब काले भागतीं परछाइयाँ,
मौत का है जश्न सारा नाचतीं परछाइयाँ.

हुश्न खुदा के नूर का जिस्म में दिखता नहीं,

चीर सीना जो दिखाया झाँकतीं परछाइयाँ.

जो दुआ में हम खुदा से मांगती इंसानियत,

तो हमारे हाथ आतीं झेंपती परछाइयाँ.

चाँद तारे साज सरगम खो गए ऐ जिंदगी,

दिन दहाड़े आसमां को घेरतीं परछाइयाँ.

सुनहरे थे हाथ जिनके कब्र में तन्हा पड़े,

आदमी का भ्रम सारा तोड़ती परछाइयाँ.

क्यों नगाड़े बज रहें हैं आज भी संसार में?

क्यों हमारे भूख को है हाँकतीं परछाइयाँ?