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12 अप्रैल 2014

मेरा ईश्वर

वो अमूर्त ईश
जिसे पूजता जग है
देकर शक्ल और चरित
कल्पना से अपनी,
मुझे नहीं लगता
अपना-सा
जाने क्यूँ?

क्यूँ नहीं
पूज सकता मैं
किसी अपने को
जो सदेह सम्मुख है
गुण अवगुण के मूर्त रूप में,
जिसे देखकर मैं सीख सका
व्यवहार जीवन का,
जिसने मुझे
जाने अनजाने
दे दिया गुरुमंत्र
जीने की कला...

पालनहार है जो
वो ही है
राम सीता
मेरे जीवन का,
जो आदर्श रूप में
स्थित है मेरे हृदय में...

मेरे व्यथित मन में
जो करता है संचार
आनंद का, उल्लास का,
प्रस्फुटित करता है
रास का उमंग
और प्रेम का रंग,
ऐसा एक युग्म
क्यों नहीं हो सकता
राधा-कृष्ण मेरा
आराध्य मेरे मन-मंदिर का?

मुझे तो दीखता है
मेरा ईश्वर
मेरे अगल-बगल
मेरे घर-परिवार में
कुछ पूर्ण, कुछ अपूर्ण
संस्कारों और विकारों का
जीवंत मिश्रण,
अत्यंत जटिल
अबूझ पहेली सा
ईश्वर जैसा...