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13 फ़र॰ 2010

...कैसे???

टुकडों में जी जाती है जिंदगी कैसे?
ज़ख्मों की की जाती है गिनती कैसे?

मेरा हर झूठ बन जाता है सच,
इस सच पे लिखूं शायरी कैसे?

हर तरफ़ अपनों की लगी है भीड़,
इस शोर को कहूँ तन्हाई कैसे?

अन्दर कुछ,बाहर कुछ और हूँ मैं,
आईने में देखूं अपनी सच्चाई कैसे?

कहते हैं फकीरी में ताक़त गजब है,
'कायस्थ' तेरे भीतर चलाऊं सुई कैसे?

5 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है।बहुत बहुत बधाई।

M VERMA ने कहा…

खुद को बेशक दिलफेंक रखो
अन्दर बाहर पर एक रखो

vandana gupta ने कहा…

waah ...........bahut hi umda .

shama ने कहा…

टुकडों में जी जाती है जिंदगी कैसे?
ज़ख्मों की की जाती है गिनती कैसे?
Kya kahen? Aapne mugdh kar diya!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर और सटीक रचना लिखी है आपने!
प्रेम दिवस की हार्दिक बधाई!

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