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22 दिस॰ 2009

अफ़सोस है मुझे

हमें सभी के लिए बनना था
और शामिल होना था सभी में

हमें हाथ बढ़ाना था
सूरज को डूबने से बचने के लिए
और रोकना था अंधकार से
कम से कम आधे गोलार्ध को


हमें बात करना था पत्तियों से
और इकठ्ठा करना था तितलियों के लिए
ढेर सारा पराग

हमें बचाना था नारियल के पानी
और चूल्हे के लिए आग

पहनाना था हमें
नग्न होते पहाड़ों को
पेड़ों का लिबास
और बचानी थी हमें
परिंदों की चहचाहट

हमें रहना था अनार में दाने की तरह
मेहंदी में रंग
और गन्ने में रस बनकर

हमें यादों में बसना था लोगों के
मटरगश्ती भरे दिनों सा
और दौड़ना था लहू बनकर
सबों की नब्ज में

लेकिन अफ़सोस की हम ऐसा
कुछ नहीं कर पाए
जैसा करना था हमें!

10 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बिलकुल सही कहा आपने। बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति आभार

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

सदा ने कहा…

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति ।

मनोज कुमार ने कहा…

इस कविता में बहुत बेहतर, बहुत गहरे स्तर पर एक बहुत ही छुपी हुई करुणा और गम्भीरता है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

पर्यावरण के प्रति आपकी चिन्ता वाजिब है!

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है पर्यावरण पर।बधाई।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

वक़्त की बहन थामकर हम आज कर सकते हैं कुछ
अफ़सोस की अवधि कम कर सकते हैं

रश्मि प्रभा... ने कहा…

baanh likhna tha,likha gaya bahan

कविता रावत ने कहा…

Prakriti ke prati hamen apna kartavya nahi bhulana chahiyen varna uska prinaam to sabhi dekhate hi hain...
Sundar Prastuti ke liye dhanyavaad.

shama ने कहा…

लेकिन अफ़सोस की हम ऐसा
कुछ नहीं कर पाए
जैसा करना था हमें!
Irade itne nek hain,to zaroor kar payenge! Aameen!

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