हमें सभी के लिए बनना था
और शामिल होना था सभी में
हमें हाथ बढ़ाना था
सूरज को डूबने से बचने के लिए
और रोकना था अंधकार से
कम से कम आधे गोलार्ध को
हमें बात करना था पत्तियों से
और इकठ्ठा करना था तितलियों के लिए
ढेर सारा पराग
हमें बचाना था नारियल के पानी
और चूल्हे के लिए आग
पहनाना था हमें
नग्न होते पहाड़ों को
पेड़ों का लिबास
और बचानी थी हमें
परिंदों की चहचाहट
हमें रहना था अनार में दाने की तरह
मेहंदी में रंग
और गन्ने में रस बनकर
हमें यादों में बसना था लोगों के
मटरगश्ती भरे दिनों सा
और दौड़ना था लहू बनकर
सबों की नब्ज में
लेकिन अफ़सोस की हम ऐसा
कुछ नहीं कर पाए
जैसा करना था हमें!
10 टिप्पणियां:
बिलकुल सही कहा आपने। बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति आभार
nice
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
इस कविता में बहुत बेहतर, बहुत गहरे स्तर पर एक बहुत ही छुपी हुई करुणा और गम्भीरता है।
पर्यावरण के प्रति आपकी चिन्ता वाजिब है!
बहुत सुन्दर रचना है पर्यावरण पर।बधाई।
वक़्त की बहन थामकर हम आज कर सकते हैं कुछ
अफ़सोस की अवधि कम कर सकते हैं
baanh likhna tha,likha gaya bahan
Prakriti ke prati hamen apna kartavya nahi bhulana chahiyen varna uska prinaam to sabhi dekhate hi hain...
Sundar Prastuti ke liye dhanyavaad.
लेकिन अफ़सोस की हम ऐसा
कुछ नहीं कर पाए
जैसा करना था हमें!
Irade itne nek hain,to zaroor kar payenge! Aameen!
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एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...