टेकता लाठी
एक बूढा
बढ़ रहा है
रास्ते के ठोकरों से
क़दमों को बचाते
लड़खड़ाते।
सोचते हुए-
"अब पाया लाठी
लाभ क्या?
लड़ सकता नहीं
चल भी सकता नहीं
जब
बिन सहारे।"
उसकी आँखे
खोज रही हैं
एक जवान
उत्तराधिकार सौंपने को
लाठी थमाने को।
शायद
बूढे के डगमगाते कदम
मजबूत हो जायें
मजबूत बांहों का
सहारा पाकर
कि वह
कुछ और आगे बढ़ सके
और
अपनी लाठी-
जीवन के अनुभव को
सही हाथों में
सौंप जाए।
बुदबुदा रहा है वह-
ऐ युवा!
थम ले बढ़कर
मेरी लाठी,
पा ले
बुजुर्ग जीवन की कमाई
शुभाशीष में
आज ही।
एक बूढा
बढ़ रहा है
रास्ते के ठोकरों से
क़दमों को बचाते
लड़खड़ाते।
सोचते हुए-
"अब पाया लाठी
लाभ क्या?
लड़ सकता नहीं
चल भी सकता नहीं
जब
बिन सहारे।"
उसकी आँखे
खोज रही हैं
एक जवान
उत्तराधिकार सौंपने को
लाठी थमाने को।
शायद
बूढे के डगमगाते कदम
मजबूत हो जायें
मजबूत बांहों का
सहारा पाकर
कि वह
कुछ और आगे बढ़ सके
और
अपनी लाठी-
जीवन के अनुभव को
सही हाथों में
सौंप जाए।
बुदबुदा रहा है वह-
ऐ युवा!
थम ले बढ़कर
मेरी लाठी,
पा ले
बुजुर्ग जीवन की कमाई
शुभाशीष में
आज ही।
3 टिप्पणियां:
thank you for nice comment on my poem.
उत्तराधिकार के दायित्व को सौपने की व्यथा अच्छी – बहुत अच्छी कही है आपने. सुन्दर रचना के लिये बधाई
Bohot dard hai is rachname...jo tan laage so tan jaane..aur kya kahun?
Hey,your poem is great. Main aapke is kavita ko padhkar bahut khush hua. Achcha likha hai. Isi tarah likhiye. Bahut achcha... Thanks...
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एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...