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21 नव॰ 2009

इन्तहां इम्तहान की

खुदी को किया बुलंद हिम्मत से अपने,
दुश्मन थे जो सर झुकाने लगे हैं॥
गलियों से आजकल गुजरने पर मेरे
झरोखे भी अब मुस्काने लगे हैं॥
सड़कों पे अजनबी जितने थे चेहरे
आसपास महफ़िल सजाने लगे हैं॥
जमाने का ऐसा हो गया है रिवाज,
उन्नति को अपना बताने लगे हैं॥
जिंदगी को बाहों में भर लिया मैंने,
ख्वाबों में तारे जगमगाने लगे हैं॥
मुझे है इंतज़ार पैगाम का तेरे,
राहों में पलकें बिछाने लगे हैं॥
मुहब्बत की दुनिया बनाई थी हमने,
ख्यालों से उसको सजाने लगे हैं॥
इन्तहां हो गई जब इम्तहान की मेरे,
बाँहों में तुझे तब पाने लगे हैं॥

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर गीत लिखा है आपने!
बधाई!

मनोज कुमार ने कहा…

निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है।

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एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...