मैं सोचता हूँ
हर दिन
कुछ करुँ नया!
सोचते-सोचते
कुछ न मिला
और वो दिन
बीत गया!
मेरा सवेरा
होता था
कुछ ख़ास
लम्हों के साथ!
बीतती थी
मेरी रात
एक नए
सोच के साथ!
दीवार बनकर
उदासी मेरे
दिल पर!
क्या करुँ,
क्या न करुँ
बचकर रहता हूँ
इससे मैं घबराकर!
मैं अपनी
दिली इच्छा से
बैठता हूँ
कोई नया काम करने!
लेकिन कुछ लोग
ऐसे मिल जाते हैं
जो लग जाते हैं
उसे रोकने!
मैं अपनी
उदासी भरी बात
आज आप लोगों से
व्यक्त कर रहा हूँ!
आप इसे
समझ सकतें हैं
तो समझें
नहीं तो मैं
कुछ भी नहीं
कह रहा हूँ!
कोई भी काम
मैं ठीक से
नहीं कर पाटा
मेरे मन में
घबराहट गूंजती है
जिसे मैं
कह नहीं पाटा!
"मेरी कुछ बातें"
किसी की दिलों में
नहीं जाती!
सब अपने
रहते हैं मग्न
और मेरी बात
समझ में नहीं आती!
7 टिप्पणियां:
मै सोचता हूँ
हर दिन
कुछ नया करूँ
यही वो लौ है जो जलती रहनी चाहिये, कुछ नया करने की चाहत ही कुछ नया करवाती है.
सुन्दर रचना है।
भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!
कुछ न कुछ सबके भीतर में छुपा हुआ है द्वन्द।
सुमन ठान ले कुछ करने को मन होता स्वच्छन्द।।
सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
हताशा का संवेदनशील दस्तावेज
अन्त: संवेदनाओं का संघर्श बहुत अच्छी भावाविव्यक्ति है शुभकामनायें
यही तो सबके मन का द्वन्द्व है .. जो कहना चाहता है कह नहीं पाता .. जो कह पाता है लोग उसे समझ नहीं पाते !!
antardwand ko achche shabd diye hain.
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एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...