मैं हूँ खिड़की पे लटका एक परदा,
देखता हूँ सब कुछ नहीं कहता।
है क्यूँ हैरान वो यह ख़बर पढ़कर,
उसके रास्तेमें क्या गड्ढा नहीं पड़ता।
अंधे-बहरों का वक्त गुजरता है मजे से,
पड़ोस में कौन जन्मा, कौन मरा न पता।
इंसानों की बस्तियां सिमटी है ऐसे,
चाँद की ख़बर है दिल्ली का न पता।
राम तेरी दुनिया हुई है आज कैसी,
आता जाता कोई भी अंदर न झांकता।
देखता हूँ सब कुछ नहीं कहता।
है क्यूँ हैरान वो यह ख़बर पढ़कर,
उसके रास्तेमें क्या गड्ढा नहीं पड़ता।
अंधे-बहरों का वक्त गुजरता है मजे से,
पड़ोस में कौन जन्मा, कौन मरा न पता।
इंसानों की बस्तियां सिमटी है ऐसे,
चाँद की ख़बर है दिल्ली का न पता।
राम तेरी दुनिया हुई है आज कैसी,
आता जाता कोई भी अंदर न झांकता।
4 टिप्पणियां:
नीरज जी सराहनीय प्रयास है...बस लिखने में रवानी की कमी अखरती है.....लिखते रहिये सब ठीक होगा.......
नीरज
bahut hi sundar bhaaw .........antardwand ka ienaa
लिखते रहें, शुभकामनाऐं.
बहुत अच्छा लिखा है आपने!
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एक अदना सा आदमी हूँ और शौकिया लिखने की जुर्रत करता हूँ... कृपया मार्गदर्शन करें...